Wednesday, April 27, 2011

जनता जनार्दन के कारनामें



जिस जनता के लिए कानून बनाया जाता है वही जनता कानून तोड़ती है। ‍जो जनता सत्ता में तानाशाह या भ्रष्टों को बिठाकर स्वयं पर अत्याचार करने के लिए बाध्य करती है वही जनता जन आंदोलन कर सत्तापक्ष को उखाड़ने की बात करती है।




जो जनता लोकतंत्र से उकता गई है वह तानाशाही का पक्ष लेती है और जो तानाशाही से त्रस्त हो गई है वह लोकतंत्र की मांग करती है और जो दोनों से उकता गई है वह धार्मिक कानून या कट्टरवाद के पक्ष में हाथ उठाती है। इस सबके अलावा वह कम्युनिज्म के भी पक्ष में हो ही लेती है।


दरअसल जनता को दिमाग नहीं होता, कहना चाहिए की भीड़ एक दिमागहीन झूंड है। ऐसा झूंड जो कभी भी कुछ भी सोच और कर सकता है। धर्म, कम्यूनिज्म या अन्य कोई भी व्यवस्था जनता ने जनता के लिए ही बनाई है और जनता ही उसके जाल में उलझकर मर गई।


क्या आपको नहीं लगता की धर्म, समाजवाद और राजनीति उसी तरह है कि जनता ने उन्हें अजर अमर रहने का वरदान दिया और अब वह ही जनता को मारने में लग गए- भस्मासूर। हालांकि जनता को भी मरने में मजा आता है तभी तो अराजकता, क्रांति और असंतोष बना हुआ है और यह बना ही रहेगा।


क्योंकि पृथ्वी घुम रही है, दिन और रात होते रहे हैं और इस घुर्णण गति के चलते जो अमेरिका कभी भारत की जगह था आज अमेरिका है और अब वह फिर से भारत होना चाहता है। सोचे कि हम बहत आधुनिक हो लिए अब बर्बर युग या कहें कि मध्य युग की ओर जनता लौटना चाहती है, लेकिन वह दोष इस्लाम को देती है, लोकतंत्र को देती है और ना जाने किस किस तंत्र मंत्र को।

खैर, आज इतना ही। इतने से ही आप जनता बनने से बच जाएं तो मैं समझूंगा की मेरा लिखना सार्थक हुआ अन्यथा तो बड़े बड़े बक बक कर मर गए पर तोताराम तो तोता ही रहे।

Friday, April 22, 2011

आवारा विचारों के झरोखों से..



कचरा चीजों को दिमाग में रखने का कोई तुक नहीं, जैसे दुनिया के सारे संविधान, धर्म के कानून, कम्युनिस्टों की विचारधाराएँ और संसार की वे सारी बातें जिससे परिवार, समाज या राष्ट्र में अलगाव फैलता हो या जो बचकानी हो। व्यर्थ का डाडा दिमाग में रखने से बेहतर है कि इसे फार्मेट कर दें। वही चीजें रखें जो जीवन को सुंदर, शांतिपूर्ण, संगीतमय और अहिंसक बना सकें। बुद्धत्व के करीब ला सके।


दुनिया में ऊँच-नीच, असमानता, नक्सलवाद, आतंकवाद आदि सभी बुराईयों का कारण है लोगों का लोगों के साथ व्यवहार का तरीका और भेदभाव किया जाना। बड़ी और महँगी शिक्षा दी जाती है, लेकिन यह नहीं सीखाया जाता है कि हम लोगों से किस तरह से मिले और हम सकारात्मक कैसे सोचें।


एक हिंदू मुसलमान से मिलते वक्त यह सोचकर मिलता है कि यह एक मुसलमान हैं उसी तरह मुसलमान भी सोचता है। गरीब से मिलते वक्त अमीर यह सोचकर मिलता हैं कि यह गरीब हैं। सारे भारतीय अमेरिकियों से मिलते वक्त यह सोचते हैं कि यह गोरे हैं हमसे श्रेष्ठ हैं। यही सोच घातक हैं।



कितना अजीब है कि एक आदमी जब किसी दूसरे आदमी से मिलता है तो यह नहीं सोचता की यह भी आदमी है, जबकि जंगल का कोई भी पशु और पक्षी इस मामले में मनुष्यों से बेहतर है। एक शेर को अपने धर्म, क्षेत्र और भाषा का नाम नहीं मालूम। अच्छा है कि उसे यह सब कुछ मालूम नहीं हुआ अन्यथा वह मानवों के खतम करने से पहले ही अपना अस्तित्व मिटाने का इंतजाम कर लेता।................

Wednesday, May 26, 2010

यह सब कुछ झूठ है?

योग और तर्कशास्त्र कहता है कि जिस ज्ञान का कोई प्रत्यक्ष नहीं वह विकल्प ज्ञान होता है। विकल्प अर्थात कल्पना, भ्रम और मिथ्‍या तर्क से ग्रस्त ज्ञान। आओ जाने की विकल्प ज्ञान क्या-क्या है:-

1. 'ईश्वर' है या नहीं है- यह सोचना या मानना मिथ्‍या ज्ञान है। अर्थात नास्तिकता और आस्तिकता दोनों ही उक्त श्रेणी में आते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वर्ग और नर्क भी मिथ्या ज्ञान है।
2. खगोल शस्त्र को छोड़कर ज्योतिषीय अवधारणा तथ्‍य और तर्कहीन है विशेषकर फलित ज्योतिष, जो व्यक्ति के भाग्य और भविष्य को लेकर की गई भविष्यवाणियाँ या उपाय बताता है वे सब भ्रमपूर्ण है। कोई भी ग्रह-नक्षत्र किसी विशेष व्यक्ति के लिए उदय या अस्त नहीं होता। यह अकर्मण्य और भय से ग्रस्त मिथ्या ज्ञान जीवन के विरुद्ध माना गया है। उक्त ज्ञान में त्रुटियाँ हैं।
3. विक्रम, ईसा, बंगाली और हिजरी जैसे किसी भी संवत में 'समय' को नहीं बाँधा जा सकता। यह कौन तय करेगा कि आज से नववर्ष शुरू हुआ या‍ कि यह 2064, 2009 या 1314 है आदि। कैसे तय होगी कि धरती की तारीख वही हैं जो कि केलेंडर में लि‍खी होती है। सारे कैलेंडर मिथ्या ज्ञान से ग्रस्त हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि 21 मार्च को धरती सूरज का एक चक्कर पूर्ण कर लेती है इस मान से धरती का नववर्ष 21 मार्च ही माना जाना चाहिए या नहीं?
4. जब हम कैलेंडरों के विरोधाभाष की बात करते हैं तो स्वत: ही अंक ज्योतिष का कोई महत्व नहीं रह जाता। मान लो यदि किसी की जन्म तारीख 21 मार्च है तो ‍विक्रम संवत अनुसार ‍कुछ और होगी तथा हिजरी संवंत अनुसार ‍कुछ ओर।
5. धर्म हैं सत्य का मार्ग न ही राजनीतिक हिंसा का मार्ग, जिस धर्म में राजनीति सिखाई जा रही है वह धर्म नहीं मिथ्‍या ज्ञान का हिस्सा है। दूसरों के खिलाफ खड़ा धर्म कैसे धर्म हो सकता है? यह तो शुद्ध राजनीतिक और आपराधिक चालाकी है।
6. कौन है जो तुमसे प्रेम करता है? यह मानना कि कोई तुमसे प्रेम करता है तब तक झूठ है जब तक कि तुम स्वयं से प्रेम करना नहीं सिख जाते। लोग सुंदरता से प्रेम करते हैं। धन से प्रेम करते हैं। गाड़ी से, बंगले से और आपकी महानता से प्रेम करते हैं आपसे नहीं।
7. हमारी भाषा में जो हम देखते हैं और जो हम सोचते हैं तो सोचे कि अलग-अलग भाषा के लोगों द्वारा सोची गई एक ही तरह की बात में भी समानता क्यों नहीं होती, क्योंकि भाषा हमारी 'सोच' को निर्मित करती है। भाषा से उपजी सोच, समझ और अनुभव हमारे ज्ञान का आधार नहीं होती। इसमें कई तरह की भ्रमपूर्ण उलझने हैं।
8. सोचें कि हम क्या सोचते हैं। हम मुसलमान हैं, हिंदू हैं, ईसाई हैं या सिख। हम सभी अपने अपने धर्म को महान, पवित्र और सच्चा धर्म मानते हैं। हमारी सोच का एक दायरा निर्मित हो जाता है। उस दायरे से बाहर निकल कर सोचना फिर हमारे बस का नहीं। तब माना जायेगा की हमारी सोच एक विशेष तरह का झूठ है। यह सिर्फ बुद्धि की कोटियों का भ्रमजाल है। जारी...

Saturday, March 20, 2010

माँ तुम्हारे लिए...



नवरात्रि पर विशेषमोजे रात में सुखाकर मेरे रूम के टेबल पर रख दिए गए थे। प्रेसबंद पेंट-शर्ट कबर्ड में टंग चुके थे। चाय ऊबलने की खुशबू आ रही थी। चाय की खुशबू में चावल के पकने की खुशबू कुकर की सिटी से निकल कर मेरे भीतर तक अजीब-सा घालमेल कर रही थी।
नींद खुलने के बाद भी तब तक पलंग पर सोता रहता हूँ जब तक कि माँ कह न दें की 7 बज गए हैं, चाय तैयार है।
सचमुच इन सबसे पहले मेरे कानों में 6 बजे से ही बाथरूम में बाल्टी और पानी ढुलने की आवाज सुनाई देती रहती है फिर कुछ देर बाद गायत्री मंत्र की बुदबुदाहट और फिर अंतत: मेरे कानों में माँ आकर कहती है 7 बज गए है और चाय तैयार हैं।
कई सालों से यह क्रम जारी है। उस वक्त भी जब वह बीमार होती थी और उस वक्त भी जब मैं बीमार होता था। मैं बदलता रहा, लेकिन माँ कभी नहीं बदली। कितनी ही दफे कहा कि मत उठा करो इतनी सुबह मेरे लिए। मत चावल पकाया करो इतनी सुबह। कोई जरूरत नहीं है चाय बनाने की। तुमने मेरी आदतें बिगाढ़ रखी है।
गाँव में पहले नाना के लिए उठती रही। खेतों में काम करती रही। फिर मेरे पिता के लिए सुबह-सुबह उठकर तमाम तरह के उपक्रम करती रही और अब मेरे लिए! क्या यही है तुम्हारा जीवन। कभी दुनिया नहीं देखी। तीरथ जाने की आस आज तक मन में है। पड़ोस के मंदिर में भागवत सुनने से क्या भला होगा?
क्या तुमने कभी सोच की मैं शादी करके अपना घर बसा लूगाँ तो कितना ध्यान रख पाऊँगा तुम्हारा? क्या शादी के बाद आज तक कभी किसी ने अपनी माँ का उसी तरह ध्यान रखा जिस तरह की माँ रखती आई। क्या कोई बेटी ससुराल जाने के बाद मुलटकर देखती है उसी तरह जैसे कि बचपन में वह माँ को मुलटकर देखती थी?
मुझे बहुत गुस्सा आता था जब माँ कानों में कहती थी, 7 बज गए हैं चाय तैयार है। और जब मैं फिर भी नहीं उठता था तो टाँट कर कहती थी क्या स्कूल नहीं जाना है? और कई साल बाद आज भी कहती हैं क्या ऑफिस नहीं जाना है? चलो उठों, चाय तैयार है। समय पर ऑफिस पहुँचा करो।....लेकिन सच मानो आज तक में कहीं भी समय पर नहीं पहुँचा। शायद इस धरती पर भी नहीं.... हो सकता है कि जब मेरी मौत होगी तो वह भी बेसमय। यमराम भी कहेगा अरे कम से कम यहाँ तो समय पर आना चाहिए था। तुम लेट हो गए।
माँ को शतायु का शत शत प्रणाम :
सैन्स फ्रांसिक्कों का वह नागरिक था। नाम उसका डिसूजा था, जिनसे अपनी माँ को प्रेमिका के खातिर छोड़ दिया था। उसकी बहुत तरक्की हुई वह शिप पर सेलर हो गया। कई दफे काल आया कि तुम्हारी माँ बीमार है तुम्हें बस एक बार देखभर लेना चाहती है, लेकिन वह कभी नहीं गया गाँव, जबकि पत्नी के एक फोन पर वह छुट्टी की एम्पीकेशन सम्मीट कर देता था।
एक दिन समुद्र में जहाज पर वह था तो उसने दूर से देखा कि समुद्री तूफान उसके जहाज की ओर आ रहा है। सतर्कता के लिए सुरक्षित जगह की तलाश करके के लिए दौड़ता है तभी शिप के एक गलियारें में देखता है कि उसकी माँ खड़ी हुई है। वह दंग रह जाता है- 'माँ तुम यहाँ कैसे?'
कुछ नहीं बेटे मुझे अभी पता चला की सबसे नीचे के फ्लोर में पानी घुस गया है तुझे पीछे के रास्ते से निकलकर ऊपर रखी हुई मोटर बोट का उपयोग करना चाहिए, क्योंकि तूफान बढ़ने वाला है और जहाज के डूबने की संभावना है।
'अच्छा लेकिन तुम यहाँ कैसे आई ये तो बताए?'
'मेरे प्यारे बेटे यह पूछने-ताछने का वक्त नहीं है, पहले अपनी जान बचाओ फिर सब बता दूँगी।'
'तुम भी चलो मेरे साथ'
'ठीक है तुम आगे-आगे चलो में पीछे से आती हूँ।'
डिसूजा दौड़ता हुआ ऊपरी हिस्से पर जाने लगता है तभी पीछे पलटकर देखता है कि माँ पता नहीं कहाँ चली गई। वह कुछ सोच पाता इसके पहले ही जहाज को जोर से एक झटका लगता है और वह तूफान से घिर जाता है। डिसूजा माँ कि फिकर किए बगैर लाइफ जैकेट पहनता है और मोटर बोट को ढुँढने के लिए माँ द्वारा बताए स्थान पर दौड़ पड़ता है।
.....उस तूफानी हादसे में अधिकतर लोगों की जान चली गई, लेकिन डिसूजा बच गया। दूसरे दिन डिसूजा के हाथ में एक पत्र होता है जिसमें लिखा होता है कि जब तक तुम्हारे पास यह पत्र पहुँचेगा तब तक तुम्हारी माँ को दफना दिया जाएगा यदि तुम उसकी शांति के पाठ में आना चाहो तो आ जाना....तुम्हारा पिता।

Wednesday, December 23, 2009

खत्म होती भारतीयता..

सोच रहा हूँ क्या खाऊँ। आजकल कुछ माह से भूख नहीं लग रही। पता नहीं क्यों। शायद इसलिए कि वैसे भी टमाटर भी अब कहाँ देशी रहे। देशी लहसुन की जगह चाइना लहसुन ने ले ली है। बहुत दिनों से पीपल नहीं देखा। तहसील चौराहे पर बरगद हुआ करता था। शहरीकरण के चलते काट दिया गया। अब हर घरों के सामने कैक्टस, पॉम्स आदि किस्म के अंग्रेजी पौधे नजर आते हैं।

कहीं सुनने में आया था कि बकरा और मुर्गा खाने के अति प्रचलन के चलते अब पुराने देशी बकरों और मुर्गों की नस्ल लगभग खतम हो चली है। मिनार है, दिनार है या अन्य कोई। मछलियाँ पकड़ने वाले आजकल समुद्र में दूर तक जाते हैं। तालाब और नदियों की मछलियों में विदेशी नस्ल को तैराया गया है। सफेद रंग और लाल मुँह के सुअर गलियों में घुमते रहते हैं। बेचारे भारतीय सुअरों का अस्तित्व संकट में है। धीरे-धीरे देशी खतम।

वो गलियाँ और वे चौबारे जिसे गाँव में शायद सेरी और चौपाल भी कहते हैं। अब तो फव्वारेदार सर्कल है। सिमेंट की तपती सड़कें हैं। प्लास्टीक के वृक्ष हैं। अब किसी घर से हिंग या केसर की सुगंध नहीं आती। ऐसेंस है। वेनीला है। शोर भी अब देशी कहाँ रहा। अंग्रेजी स्टाइल में शोर होता है। चिट्टी आई, पत्री आई और न आया टेली ग्राम...सिताराम सिताराम सिताराम.....सिताराम। अब तो मेल खोलो, मोबाइल खोलो....और खोलो सेट ट्रॉम।

ओह...इन अखबारों के शब्दों को क्या हुआ। पता ही नहीं चला ये भी धीरे-धीरे...टीवी, फिल्म से अब अखबार भी!!! इसका मतलब यह कि हमारी सोच भी अब देशी नहीं रही। कुछ लोग चाहते हैं कि हममें अरबों का खून दौड़े...वे ऐसा क्यूँ चाहते हैं? कुछ लोग चाहते हैं कि हममें अंग्रेजों का खून दौड़े....पूछो कि वे ऐसा क्यूँ चाहते हैं। क्या भविष्य में वीर्य आयातीत होगा?

क्या इन हिंदुओं को यह नहीं मालूम की हम भारतीय हैं? और पूछों इन मुसलमानों से कि तुम कब से अरबी हो गए? हिमालय से लेकर कन्या कुमारी तक हमारा रंग न तो अंग्रेजों जैसा है, न अरबों जैसा और न ही हम चाइनी लगते हैं। चाइनी को अपने चाइनी होने में कोई ऐतराज नहीं। अरब के शेख को अरबी होने पर गर्व है। अंग्रेज तो पैदाइशी ही गर्व से रहता है। आखिर क्या हो गया इन भारतीयों को। हिंदु, मुसलमान, ईसाई में बँटे भारतीयों के बीच शायद अब चाइनी, अमेरिकी, ब्रिटेनी और अरबी मिलकर भारत में नया बाजार तलाश रहे हैं।

देशी मछलियों से वैसे भी हम भारतीयों का जी उचट गया है, क्योंकि ये मछलियाँ अंग्रेजों के सपने देखने लगी है। सोचता हूँ कि एक परमाणु मेरे हाथ में होता तो क्या होता। मैं कतई अश्वत्थामा नहीं बनता लेकिन...जाने भी दो यारो।

Monday, December 14, 2009

मैं भारत नहीं हूँ...!

अपनों के खिलाफ अपने....

बहुत पहले यह फ्रस्टेशन लिखा था जब राज ठाकरे के कारण दिमाग में विकार उत्पन्न हो गया था। अब नहीं है तो फिर इस आलेख का भी अब कोई महत्व नहीं है। आप भी इसे गंभीरता से नहीं लेंगे। वैसे सकारात्मकता के लिए जरूरी है कि हम वहीं बाते लिखें जो सभी के हित की हो। अपने फस्ट्रेशन व्य‍क्त करने का कोई मतलब नहीं है।

कई हजार वर्षों पहले मैं सिर्फ मैं था, आज मैं, मैं नहीं हूँ। हिंदूकुश से अरुणाचयल की वादियों तक और हिमालय से निकलकर समुद्र में खो जाने तक के सफर में कभी मुझे खंड-खंड हो जाने का अहसास नहीं था। मैं अखंड भारत था।
आज मैं हिंदू हूँ, मुसलमान हूँ, सिख हूँ, कम्युनिस्ट हूँ, ईसाई हूँ, अफगानि हूँ, पाकिस्तानी, हिदुस्तानी या बांग्लादेशी हूँ।

और जिसे अब हिंदुस्तान कहा जाता है उसमें भी मैं टुकड़ों में कहीं स्वयं को खोजने का प्रयास करता हूँ, क्योंकि अब ‍मुझे या तो मराठी समझा जाता है या हिंदी भाषी। तमिल या फिर असमी। कश्मीरी या फिर केरली। कांग्रेसी या भाजपाई।

आखिर मैं क्या हूँ?मैं क्या हूँ....यहाँ कोई गर्व से नहीं कहता कि मैं भारतीय हूँ। सभी विदेश में जाकर भारतीय कहलाना पसंद करते हैं और कुछ तो अब ऐसा करना भी छोड़ने लगे हैं। मैं अब भारतीय नहीं रहा ब्रिटिश हूँ, अमेरिकन हूँ या फिर भारतीय मूल का पक्का जर्मनी हूँ। मैं सब कुछ हूँ, लेकिन भारत नहीं हूँ...। मैं अपने भीतर झाँककर देखता हूँ तो अब स्वयं से ही खींझ होने लगी है।

एक ही है सभी : समाज और जाति की जीन संवरचना पर शोध करने वाले वैज्ञानिक कहते हैं कि अखंड भारत की भूमि पर बसे मानव जाति के वंशज एक ही थे। आर्य या अनार्य, आर्य या द्रविड़ का विवाद व्यर्थ है। अमेरिका में हार्वर्ड के
विशेषज्ञों और भारत के विश्लेषकों ने भारत की प्राचीन जनसंख्या के जीनों के अध्ययन के बाद पाया कि सभी भारतीयों के बीच एक अनुवांशिक संबंध है और आश्चर्य यह भी की चीन और रूस के पूर्वज भी भारतीय ही हैं।

भाषाई झगड़े : तीन हजार वर्ष पूर्व हिंदी भाषा नहीं थी, मराठी भी नहीं थी। गुजराती, बंगाली, सिंधि, पंजाबी और तमिल भी नहीं। भाषा का इतिहास जानने वाले शायद यह भी जानते होंगे कि हिंदी भाषा किसी प्रांत की भाषा नहीं है। हिंदी भाषी राज्यों की बात करते हैं- मध्यप्रदेश में मालवी, बुंदेलखंडी और निमाड़ी भाषा यहाँ की स्थानीय भाषा है। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, खल्टाही, सदरी कोरबा आदि। उत्तरप्रदेश तथा बिहार में ब्रज, अवधी, मैथली आदि भाषाओं का प्रचलन है। भाषा और बोली में भी अंतर है। बोली कब भाषा बन जाती है पता ही नहीं चलता।

हिंदी और ऊर्दू भाषा का अविष्कार सभी प्रांतों के लोगों ने मिलकर किया था जिसमें मराठी, पंजाबी, गुजराती, उत्तरप्रदेशी, बिहारी और मध्यप्रदेश के लोगों का सम्मलित योगदान रहा है। दरअसल यह स्थानीय या कहें की ठेट ग्रामीण भाषा थी जिसमें ऐसे शब्दों को शामिल किया गया, जो सभी प्रांतों में बोले जाते रहे हैं। यह सारे शब्द बोलचाल की भाषा के शब्द हैं।

ऊर्दू को मुसलमान की भाषा मानने के कारण उसका अब अरबीकरण होने लगा है। पहले ऊर्दू में स्थानीय भाषा के ही शब्द हुआ करते थे, लेकिन अब कट्टवाद के चलते अरबी के शब्दों को जबरन ठूँसकर एक समय ऐसा होगा कि ऊर्दू कब अरबी हो जाएगी हमें पता ही नहीं चलेगा। मैं कब अरबी बन जाऊँगा मुझे भी पता नहीं चलेगा।

कुछ लोग इसे विवादास्पद मुद्दा मानते हैं कि अँग्रेंजों और अरबों ने अपना धर्म और अपनी भाषा पूरी दुनिया पर लादी है। इधर हिंदी को हिंग्लिश तो बनाया ही जाने लगा और और अन्य राज्यों में प्रांतवाद की आग के चलते वह अब सिमटने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं। हिंदी एक अप्रभंष भाषा है और मराठी भाषा का निर्माण प्रमुखतया, महाराष्ट्री, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से होने के कारण मराठी भाषा भी संस्कृत से निकली अप्रभंष भाषा है।

हिंदी परिवार की भाषा है- मराठी, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी, ब्रज, अवधी आदि। जो लोग संस्कृत के तत्सम और तद्‍भव शब्दों और व्याकरण को जानते हैं वे जान जाएँगे कि हिंदी और अन्य भाषाएँ क्या है।

अंग्रेजी, फारसी, अरबी के भारत आगमन के पूर्व हम भारतवासियों ने‍ मिलकर हिंदी को एक प्रांत से दूसरे प्रांत को जोड़ने की भाषा बनाया था। इसे इसीलिए मेलजोल की भाषा कहा जाता था, लेकिन अब यदि किसी तमिल या अन्य से बात करना हो तो चाहे उसे हिंदी आती हो, लेकिन वह अंग्रेजी में ही बात करना पसंद करेगा, क्योंकि वह भी अब हिंदी से जानबूझकर दूर होने लगा है।

लुप्त हो गई भाषाएँ : संस्कृत, पाली, मागधी और प्राकृत को भारत की सभी भाषाओं की जननी कहा जाता है। जब हम भारत की बात करते हैं तो उसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी आ जाता है। मगध का विस्तार कहाँ तक था यह गुप्तकाल के लोग ही जानते हैं।

धार्मिक झगड़े : जिसे हम भारतीय चमड़ी कहते हैं उसे आक्रमणकारियों, मिशनरियों, कट्टपंथियों, तथाकथित कम्युनिस्टों ने मुसलमान, ईसाई, हिंदू, बौद्ध और कम्युनिस्ट धर्म में बाँट दिया है। बाँटने का कारण भी है। बाँटोगें नहीं तो राज कैसे
करोगे। इन बँटे हुए लोगों ने ही तो भारत को अब भारत कहाँ रहने दिया है। सभी की आस्थाएँ और विचारधाराएँ बदलती गई वे अब या तो अमेरिकी या अरब परस्त है। कुछ चीन के पक्षधर है, पाकपरस्त या बांग्लादेशी हैं या फिर उन्हें ब्रिटेनी कहलाने में फक्र महसूस होता है।

न मालूम किस विदेशी ने कहा था कि भारतीयों में भारतीय होने की भावना नहीं है यही कारण है कि उनमें गौरव बोध भी नहीं है। इसका एकमात्र कारण है कि भारतीय लोग स्वयं के इतिहास को नहीं जानते। उनका इतिहास अंग्रेजों ने लिखा है, अरबों ने तोड़ा और कम्युनिस्टों ने मरोड़ा है, इसके अलावा कट्टरपंथी हिंदुओं और मुसलमानों ने इतिहास को भी आपस में बाँट लिया है और महापुरुषों को भी संप्रदाय और जातिवाद के दायरे में खींच लिया है। खैर।

इतना सबकुछ होने के बाद भी मुठ्ठीभर भारतीयों ने भारत को जिंदा बनाए रखा है। ये लोग हमारे कुछ पत्रकार हैं, कुछ चित्रकार है, कलाकार है, इं‍जीनियर, डॉक्टर, नेटर और उद्योगपति है और हाँ हमारे बॉग्लागर भाई भी। आप राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और धार्मिक व्यक्तियों की बात मत करना अन्यथा। इनमें से ज्यादातर लोग तो नकारात्मक ही हैं।

Saturday, December 12, 2009

गब्बर ने बदल नी हमारी सोच


क्यों पसंद है निगेटिव चरित्र ?


प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक 'जज' होता है। जिस व्यक्ति के भीतर जज जितनी ताकत से है वह उतनी ताकत से अच्छे और बुरे के बीच विश्लेषण करेगा। निश्चित ही ऐसा व्यक्ति स्वयं में सुधार कर भी लेता है जो खुद के भीतर के जज को सम्मान देता है। अच्छाइयाँ इस तरह के लोग ही स्थापित करते हैं।

लेकिन अफसोस की भारतीय फिल्मकारों के भीतर का जज मर चुका है। और उन्होंने भारतीय समाज के मन में बैठे जज को भी लगभग अधमरा कर दिया है। ऐसा क्यों हुआ? और, ऐसा क्यों है कि अब हम जज की अपेक्षा उन निगेटिव चरित्रों को पसंद करते हैं जिन्हें हम तो क्या 11 मुल्कों की पुलिस ढूँढ रही है या जिन पर सरकार ने पूरे 50 हजार का इनाम रखा है और जो अपने ही हमदर्द या सहयोगियों को जोर से चिल्लाकर बोलता है- सुअर के बच्चों!

दरअसल हर आदमी के भीतर बैठा दिया गया है एक गब्बर और एक डॉन। एक गॉडफादर और एक सरकार। अब धूम-वन और टू की पैदाइश बाइक पर धूम मचाकर शहर भर में कोहराम और कोलाहल करने लगी है। शराब के नशे में धुत्त ये सभी शहर की लड़की और यातायात नियमों के साथ खिलड़वाड़ करने लगे हैं।

वह दौर गया जबकि गाइड के देवानंदों और संगम के राजकुमारों में बलिदान की भावना हुआ करती थी। 60 और 70 के दशक में नायक प्रधान फिल्मों ने साहित्य और समाज को सभ्य और ज्यादा बौ‍द्धिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जबकि रूस से हमारे सम्बंध मधुर हुआ करते थे और साम्यवाद की सोच पकने लगी थी, लेकिन इसके परिणाम आना बाकी थे।

लेकिन जब आया गब्बर, तो उसने आकर बदल दी हमारी समूची सोच। शोले आज भी जिंदा है जय और विरू के कारण नहीं, ठाकुर के कारण भी नहीं गब्बर के कारण।

सुनने से ज्यादा हम बोलना चाहते हैं और 90 फीसदी मन निर्मित होता है देखने से ऐसा मनोवैज्ञानिक मानते हैं। जब हम सोते हैं तब भी स्वप्न रूप में देखना जारी रहता है। मन पर दृष्यों से बहुद गहरा असर पढ़ता है। दृश्यों के साथ यदि दमदार शब्दों का इस्तेमाल किया जाए तो सीधे अवचेतन में घुसती है बात। इसीलिए आज तक बच्चे-बच्चे को 'गब्बर सिंह' के डॉयलाग याद है। याद है 'डॉन' की अदा और डॉयलाग डिलेवरी।
भाषा और दृष्य से बाहर दुनिया नहीं होती। दुनिया के होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमारे फिल्मकारों को यह बात कब समझ में आएगी की वह जो बना रहे हैं वह देश के वर्तमान के साथ खिलवाड़ करते हुए एक बहुत ही भयावह भविष्य निर्मित कर रहे हैं, यह जानते हुए कि हमारा मुल्क भावनाओं में ज्यादा जीता और मरता है।
शोले से जंजीर, जंजीर से डॉन, खलनायक, कंपनी और फिर एसिड फैक्ट्री तक आते-आते हमारी सोच और पसंद को शिफ्ट किया गया। यह शिफ्टिंग जानबूझकर की गई ऐसा नहीं है और ना ही अनजाने में हुई ऐसा भी नहीं। छोटी सोच और बाजारवाद के चलते हुई है यह शिफ्टिंग। अब हमें पसंद नहीं वह सारे किरदार जो प्रेम में मर जाते थे अब पसंद है वह किरदार जो अपने प्रेम को छीन लेते हैं। प्रेमिका की हत्या कर देते हैं और फिर जेल में पागलों से जीवन बीताकर पछताते हैं।
फिल्मकार निश्चित ही यह कहकर बचते रहे हैं कि जो समाज में है वही हम दिखाते हैं। दरअसल वह एक जिम्मेदार शिक्षक नहीं एक गैर जिम्मेदार व्यापारी हैं। यह कहना गलत है कि फिल्में समाज का आइना होती है। साहित्य समाज का आईना होता हैं। क्या दुरदर्शन पर कभी आता था 'स्वाभीमान' हमारे समाज का आईना है? एकता कपूर की बकवास क्या हमारे समाज का आईना है? आप खुद सोचें क्या 'सच का सामना' हमारे समाज का सच है?