अपनों के खिलाफ अपने....बहुत पहले यह फ्रस्टेशन लिखा था जब राज ठाकरे के कारण दिमाग में विकार उत्पन्न हो गया था। अब नहीं है तो फिर इस आलेख का भी अब कोई महत्व नहीं है। आप भी इसे गंभीरता से नहीं लेंगे। वैसे सकारात्मकता के लिए जरूरी है कि हम वहीं बाते लिखें जो सभी के हित की हो। अपने फस्ट्रेशन व्यक्त करने का कोई मतलब नहीं है।
कई हजार वर्षों पहले मैं सिर्फ मैं था, आज मैं, मैं नहीं हूँ। हिंदूकुश से अरुणाचयल की वादियों तक और हिमालय से निकलकर समुद्र में खो जाने तक के सफर में कभी मुझे खंड-खंड हो जाने का अहसास नहीं था। मैं अखंड भारत था।
आज मैं हिंदू हूँ, मुसलमान हूँ, सिख हूँ, कम्युनिस्ट हूँ, ईसाई हूँ, अफगानि हूँ, पाकिस्तानी, हिदुस्तानी या बांग्लादेशी हूँ।
और जिसे अब हिंदुस्तान कहा जाता है उसमें भी मैं टुकड़ों में कहीं स्वयं को खोजने का प्रयास करता हूँ, क्योंकि अब मुझे या तो मराठी समझा जाता है या हिंदी भाषी। तमिल या फिर असमी। कश्मीरी या फिर केरली। कांग्रेसी या भाजपाई।
आखिर मैं क्या हूँ?मैं क्या हूँ....यहाँ कोई गर्व से नहीं कहता कि मैं भारतीय हूँ। सभी विदेश में जाकर भारतीय कहलाना पसंद करते हैं और कुछ तो अब ऐसा करना भी छोड़ने लगे हैं। मैं अब भारतीय नहीं रहा ब्रिटिश हूँ, अमेरिकन हूँ या फिर भारतीय मूल का पक्का जर्मनी हूँ। मैं सब कुछ हूँ, लेकिन भारत नहीं हूँ...। मैं अपने भीतर झाँककर देखता हूँ तो अब स्वयं से ही खींझ होने लगी है।
एक ही है सभी : समाज और जाति की जीन संवरचना पर शोध करने वाले वैज्ञानिक कहते हैं कि अखंड भारत की भूमि पर बसे मानव जाति के वंशज एक ही थे। आर्य या अनार्य, आर्य या द्रविड़ का विवाद व्यर्थ है। अमेरिका में हार्वर्ड के
विशेषज्ञों और भारत के विश्लेषकों ने भारत की प्राचीन जनसंख्या के जीनों के अध्ययन के बाद पाया कि सभी भारतीयों के बीच एक अनुवांशिक संबंध है और आश्चर्य यह भी की चीन और रूस के पूर्वज भी भारतीय ही हैं।
भाषाई झगड़े : तीन हजार वर्ष पूर्व हिंदी भाषा नहीं थी, मराठी भी नहीं थी। गुजराती, बंगाली, सिंधि, पंजाबी और तमिल भी नहीं। भाषा का इतिहास जानने वाले शायद यह भी जानते होंगे कि हिंदी भाषा किसी प्रांत की भाषा नहीं है। हिंदी भाषी राज्यों की बात करते हैं- मध्यप्रदेश में मालवी, बुंदेलखंडी और निमाड़ी भाषा यहाँ की स्थानीय भाषा है। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, खल्टाही, सदरी कोरबा आदि। उत्तरप्रदेश तथा बिहार में ब्रज, अवधी, मैथली आदि भाषाओं का प्रचलन है। भाषा और बोली में भी अंतर है। बोली कब भाषा बन जाती है पता ही नहीं चलता।
हिंदी और ऊर्दू भाषा का अविष्कार सभी प्रांतों के लोगों ने मिलकर किया था जिसमें मराठी, पंजाबी, गुजराती, उत्तरप्रदेशी, बिहारी और मध्यप्रदेश के लोगों का सम्मलित योगदान रहा है। दरअसल यह स्थानीय या कहें की ठेट ग्रामीण भाषा थी जिसमें ऐसे शब्दों को शामिल किया गया, जो सभी प्रांतों में बोले जाते रहे हैं। यह सारे शब्द बोलचाल की भाषा के शब्द हैं।
ऊर्दू को मुसलमान की भाषा मानने के कारण उसका अब अरबीकरण होने लगा है। पहले ऊर्दू में स्थानीय भाषा के ही शब्द हुआ करते थे, लेकिन अब कट्टवाद के चलते अरबी के शब्दों को जबरन ठूँसकर एक समय ऐसा होगा कि ऊर्दू कब अरबी हो जाएगी हमें पता ही नहीं चलेगा। मैं कब अरबी बन जाऊँगा मुझे भी पता नहीं चलेगा।
कुछ लोग इसे विवादास्पद मुद्दा मानते हैं कि अँग्रेंजों और अरबों ने अपना धर्म और अपनी भाषा पूरी दुनिया पर लादी है। इधर हिंदी को हिंग्लिश तो बनाया ही जाने लगा और और अन्य राज्यों में प्रांतवाद की आग के चलते वह अब सिमटने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं। हिंदी एक अप्रभंष भाषा है और मराठी भाषा का निर्माण प्रमुखतया, महाराष्ट्री, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से होने के कारण मराठी भाषा भी संस्कृत से निकली अप्रभंष भाषा है।
हिंदी परिवार की भाषा है- मराठी, गुजराती, पंजाबी, राजस्थानी, ब्रज, अवधी आदि। जो लोग संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों और व्याकरण को जानते हैं वे जान जाएँगे कि हिंदी और अन्य भाषाएँ क्या है।
अंग्रेजी, फारसी, अरबी के भारत आगमन के पूर्व हम भारतवासियों ने मिलकर हिंदी को एक प्रांत से दूसरे प्रांत को जोड़ने की भाषा बनाया था। इसे इसीलिए मेलजोल की भाषा कहा जाता था, लेकिन अब यदि किसी तमिल या अन्य से बात करना हो तो चाहे उसे हिंदी आती हो, लेकिन वह अंग्रेजी में ही बात करना पसंद करेगा, क्योंकि वह भी अब हिंदी से जानबूझकर दूर होने लगा है।
लुप्त हो गई भाषाएँ : संस्कृत, पाली, मागधी और प्राकृत को भारत की सभी भाषाओं की जननी कहा जाता है। जब हम भारत की बात करते हैं तो उसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी आ जाता है। मगध का विस्तार कहाँ तक था यह गुप्तकाल के लोग ही जानते हैं।
धार्मिक झगड़े : जिसे हम भारतीय चमड़ी कहते हैं उसे आक्रमणकारियों, मिशनरियों, कट्टपंथियों, तथाकथित कम्युनिस्टों ने मुसलमान, ईसाई, हिंदू, बौद्ध और कम्युनिस्ट धर्म में बाँट दिया है। बाँटने का कारण भी है। बाँटोगें नहीं तो राज कैसे
करोगे। इन बँटे हुए लोगों ने ही तो भारत को अब भारत कहाँ रहने दिया है। सभी की आस्थाएँ और विचारधाराएँ बदलती गई वे अब या तो अमेरिकी या अरब परस्त है। कुछ चीन के पक्षधर है, पाकपरस्त या बांग्लादेशी हैं या फिर उन्हें ब्रिटेनी कहलाने में फक्र महसूस होता है।
न मालूम किस विदेशी ने कहा था कि भारतीयों में भारतीय होने की भावना नहीं है यही कारण है कि उनमें गौरव बोध भी नहीं है। इसका एकमात्र कारण है कि भारतीय लोग स्वयं के इतिहास को नहीं जानते। उनका इतिहास अंग्रेजों ने लिखा है, अरबों ने तोड़ा और कम्युनिस्टों ने मरोड़ा है, इसके अलावा कट्टरपंथी हिंदुओं और मुसलमानों ने इतिहास को भी आपस में बाँट लिया है और महापुरुषों को भी संप्रदाय और जातिवाद के दायरे में खींच लिया है। खैर।
इतना सबकुछ होने के बाद भी मुठ्ठीभर भारतीयों ने भारत को जिंदा बनाए रखा है। ये लोग हमारे कुछ पत्रकार हैं, कुछ चित्रकार है, कलाकार है, इंजीनियर, डॉक्टर, नेटर और उद्योगपति है और हाँ हमारे बॉग्लागर भाई भी। आप राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता और धार्मिक व्यक्तियों की बात मत करना अन्यथा। इनमें से ज्यादातर लोग तो नकारात्मक ही हैं।